न्याय के देवता महासू का संबंध देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर से है, जिनका मुख्य मंदिर हनोल में पड़ता है। मिश्रित स्थापत्य शैली के इस मंदिर का निर्माण नवीं सदी में हुआ माना जाता है। कहते हैं कि पांडवों ने भी माता कुंती के साथ कुछ वक्त इसी स्थान पर गुजारा था।
उत्तराखंड में लोक देवताओं से संबंधित अनेक कथाएं प्रचलित हैं। इनमें सबसे रोचक है लोक देवता महासू की कथा। न्याय के देवता के रूप में प्रतिष्ठित महासू देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर से संबंध रखते हैं। इनका मुख्य मंदिर टोंस नदी के पूर्वी तट पर चकराता के पास हनोल गांव में स्थित है, जो कि त्यूणी-मोरी मोटर मार्ग पर पड़ता है। हनोल शब्द की उत्पत्ति यहां के एक ब्राह्मण हूणा भाट के नाम से मानी जाती है। इससे पहले यह जगह चकरपुर के रूप में जानी जाती थी। द्वापर युग में पांडव लाक्षागृह (लाख के घर) से सुरक्षित निकलकर इसी स्थान पर आए थे। समुद्रतल से 1250 मीटर की ऊंचाई पर बना मिश्रित स्थापत्य शैली का यह मंदिर नवीं सदी का माना जाता है। जबकि, एएसआइ (पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग) के रिकार्ड में मंदिर का निर्माण 11वीं व 12वीं सदी का होने का जिक्र है। वर्तमान इसका संरक्षण भी में एएसआइ ही कर रहा है।
खुदाई के दौरान एएसआइ को यहां यहां शिव-शक्ति, शिवलिंग, दुर्गा, विष्णु-लक्ष्मी, सूर्य, कुबेर समेत दो दर्जन से अधिक देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां मिली हैं। इन्हें हनोल संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है।
राष्ट्रपति भवन से कनेक्शन
मंदिर के गर्भगृह में श्रद्धालुओं का जाना निषेध है। वहां सिर्फ मंदिर का पुजारी ही प्रवेश कर सकता है। गर्भगृह में पानी की एक धारा भी फूटती है, लेकिन उसका स्रोत कहां है और कहां जल की निकासी होती है, इस बारे में कोई नहीं जानता। श्रद्धालुओं को यही जल प्रसाद के रूप में दिया जाता है। इसके अलावा गर्भगृह में एक दिव्य ज्योत भी सदैव जलती रहती है। खास बात यह है कि महासू देवता का राष्ट्रपति भवन से भी सीधा कनेक्शन है। राष्ट्रपति भवन की ओर से यहां हर साल भेंट स्वरूप नमक भेजा जाता है।
घाटा पत्थर से हुआ मंदिर का निर्माण
लोक मान्यता है की पांडवों ने घाटा पहाड़ ( शिवालिक पर्वत शृंखला) से पत्थरों की ढुलाई कर देव शिल्पी विश्वकर्मा की मदद से हनोल मंदिर का निर्माण कराया था। बिना गारे की चिनाई वाले इस मंदिर के 32 कोने बुनियाद से लेकर गुंबद तक एक के ऊपर एक रखे कटे पत्थरों पर टिके हैं। मंदिर के गर्भगृह में सबसे ऊपर भीम छतरी यानी भीमसेन का घाटा पहाड़ से लाया गया एक विशालकाय पत्थर स्थापित किया गया है। बेजोड़ नक्काशी मंदिर की भव्यता में चार चांद लगाती है।
भगवान शिव के रूप चारों भाई
महासू असल में एक देवता नहीं, बल्कि चार देवताओं का सामूहिक नाम है। स्थानीय भाषा में महासू शब्द ‘महाशिव’ का अपभ्रंश है। चारों महासू भाइयों के नाम बासिक महासू, पबासिक महासू, बूठिया महासू (बौठा महासू) और चालदा महासू हैं, जो कि भगवान शिव के ही रूप माने गए हैं। इनमें बासिक महासू सबसे बड़े हैं, जबकि बौठा महासू, पबासिक महासू व चालदा महासू दूसरे, तीसरे और चौथे नंबर के हैं। बौठा महासू का मंदिर हनोल में, बासिक महासू का मैंद्रथ में और पबासिक महासू का मंदिर बंगाण क्षेत्र के ठडियार व देवती-देववन में है। जबकि, चालदा महासू हमेशा जौनसार-बावर, बंगाण, फतह-पर्वत व हिमाचल क्षेत्र के प्रवास पर रहते हैं।
इनकी पालकी को क्षेत्रीय लोग पूजा-अर्चना के लिए नियमित अंतराल पर एक जगह से दूसरी जगह प्रवास पर ले जाते हैं। देवता के प्रवास पर रहने से कई खतों में दशकों बाद चालदा महासू के दर्शन नसीब हो पाते हैं। कुछ इलाकों में तो देवता के दर्शनों की चाह में पीढ़ियां गुजर जाती हैं। उत्तराखंड के उत्तरकाशी, संपूर्ण जौनसार-बावर क्षेत्र, रंवाई परगना के साथ साथ हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, सोलन, शिमला, बिशैहर और जुब्बल तक महासू देवता को इष्ट देव (कुल देवता) के रूप में पूजा जाता है। इन क्षेत्रों में महासू देवता को न्याय के देवता और मंदिर को न्यायालय के रूप में मान्यता मिली हुई है।
देहरादून से तीन रास्ते
देहरादून से महासू देवता के मंदिर तक पहुंचने के लिए तीन सड़क मार्ग हैं। पहला 188 किमी लंबा मार्ग देहरादून, विकासनगर, चकराता व त्यूणी होते हुए हनोल तक जाता है। दूसरा देहरादून, मसूरी, नैनबाग, पुरोला व मोरी होते हुए हनोल पहुंचता है, जिसकी लंबाई 175 किमी है। जबकि, तीसरा 178 किमी लंबा मार्ग देहरादून से विकासनगर, छिबरौ डैम, क्वाणू, मिनस, हटाल व त्यूणी होते हुए हनोल तक है।
छोटे गोले, भारी वजन
महासू मंदिर हनोल के परिसर में सीसे के दो गोले मौजूद हैं, जो पांडु पुत्र भीम की ताकत का अहसास कराते हैं। मान्यता है कि भीम इन गोलों को कंचे (गिटिया) के रूप में इस्तेमाल किया करते थे। आकार में छोटे होने के बावजूद इन्हें उठाने में बड़े से बड़े बलशालियों के भी पसीने छूट जाते हैं। इन गोलों में एक का वजन छह मण (240 किलो) और दूसरे का नौ मण (360 किलो) है।
हनोल में चारों महासू का मुख्य मंदिर
हनोल स्थित मंदिर चारों महासू भाइयों का मुख्य मंदिर है। इस मंदिर में मुख्य रूप से बूठिया महासू (बौठा महासू) की पूजा होती है। मैंद्रथ नामक स्थान पर बासिक महासू और की पूजा होती है। टोंस नदी के दायें तट पर बंगाण क्षेत्र में स्थित ठडियार (उत्तरकाशी) गांव में पबासिक महासू पूजे जाते हैं। ठडियार हनोल से करीब तीन किमी दूर है। सबसे छोटे भाई चालदा महासू भ्रमणप्रिय देवता हैं, जो कि 12 वर्ष तक उत्तरकाशी और 12 वर्ष तक देहरादून जिले में भ्रमण करते हैं। इनकी एक-एक वर्ष तक अलग-अलग स्थानों पर पूजा होती है, जिनमें हाजा, बिशोई, कोटी कनासर, मशक, उदपाल्टा, मौना आदि पूजा स्थल प्रमुख हैं। महासू के मुख्य धाम हनोल मंदिर में सुबह-शाम नौबत बजती है और दीया-बत्ती की जाती है।
भ्रमणप्रिय हैं चालदा महासू
बूठिया महासू के हनोल मंदिर में निनुस, पुट्टाड़ व चातरा गांव के लोग पुजारी हैं। जबकि, मैंद्रथ स्थित बासिक महासू मंदिर में निनुस, बागी व मैंद्रथ गांव के लोग पूजा करते हैं। दोनों मंदिरों में प्रत्येक गांव के पुजारी क्रम से एक-एक माह तक पूजा करते हैं। ठडियार स्थित पबासिक महासू के मंदिर में केवल डगलू गांव के पुजारी पूजा करते हैं। जबकि, भ्रमणप्रिय चालदा महासू की पूजा के लिए निनुस, पुट्टाड़, चातरा व मैंद्रथ गांव के पुजारी क्रमानुसार देव-डोली केसाथ-साथ चलते हैं।
महासू के चार वीर
चारों महासू के चार वीर भी हैं। इनमें कफला वीर (बासिक महासू), गुडारु वीर (पबासिक महासू), कैलू वीर (बूठिया महासू) और सेकुड़िया वीर (चालदा महासू) शामिल हैं। चारों के जौनसार-बावर में चार छोटे-छोटे पौराणिक मंदिर स्थित हैं।
अन्य मंदिरों से भिन्न और विशिष्ट
मुख्य मंदिर का गर्भगृह का छत्र नागर शैली का बना हुआ है। मंदिर में मंडप और मुख्य मंडप का निर्माण बाद में किया गया। इस मंदिर की निर्माण शैली इसे उत्तराखंड के अन्य मंदिरों से भिन्न एवं विशिष्ट बनाती है। यह लकड़ी और धातु से निर्मित अलंकृत छतरियों से युक्त है।
मंदिर के चार दरवाजे
महासू मंदिर के प्रवेश द्वार से लेकर गर्भगृह तक चार दरवाजे हैं। प्रवेश द्वार की छत पर नवग्रह सूर्य, चंद्रमा, गुरु, बुध, शुक्र, शनि, मंगल, केतु व राहू की कलाकृति बनी हैं। पहले और दूसरे द्वार पर माला स्वरूप विभिन्न देवी-देवताओं की कलाकृतियां पिरोयी गई हैं। दूसरे द्वार पर मंदिर के बाजगी ढोल-नगाड़े के साथ पूजा-पाठ में सहयोग करते है। तीसरे द्वार पर स्थानीय लोग, श्रद्धालु व सैलानी मत्था टेकते हैं। अंतिम द्वार से गर्भगृह में सिर्फ पुजारी को ही जाने की छूट है और वह भी पूजा के समय।